Ramazan’s Final Days & our relationship with society रमज़ान और आपसी सहयोग
Ghulam Rasool Dehlvi
वर्तमान समय में रमज़ान मन को शांत व संयम रखने के उपाय बताता है। दूसरों को संकट में डालने की बजाय संकट मुक्त करने की सीख देता है।
इस महीने की ख़ास बात “शबे-ए-क़दर” है जिसे क़ुरान के अनुसार “हज़ार रातों से बेहतर ” का दर्जा दिया गया है।कोरोना महामारी के चलते मस्जिद में नमाज़ पढ़ना अब हराम घोषित कर दिया गया है जो इस्लाम धर्म के अनुसार बिलकुल उचित है ! मानवजाती की सामूहिक सुरक्षा सामूहिक नमाज़ से ज़्यादा अनिवार्य है। इस संदर्भ में कई उलेमाओं ने, जैसे आजमगढ़ के जामिया अशरफया के मुफ़्ती निजामुद्दीन रिज़वी और अल्लामा अलीम अशरफ जायसी (हैदराबाद) ने पहले ही अपना बयान दे दिया है ।
इबादत और दुआओं के विभिन्न तरीकों के साथ ये महीना सामूहिक भाईचारे की भावना को उजागर करता है. इफ्तार के वक़्त सभी रोज़ेदार मिलकर रोज़ा खोलते थे लेकिन कोरोना वायरस जैसी वैश्विक महामारी को ध्यान में रखते हुए इफ्तार के समय पर भी सोशल डिस्टेंसिंग की सलाह दी गई है.
सामूहिक इफ्तार का मुख्य उद्देश्य लोगों को एक साथ जोड़ना तथा उनमें सामजस्य, उदारता और करुणा जैसे भाव को पैदा करना है.
लेकिन कोरोना महामारी के संकट के समय में मानव सुरक्षा ही क़ुरान का सबसे अनिवार्य और अंतिम उद्देश्य है.
क़ुरआन कहता है की ” एक मानव जीवन को बचाना, पूरी मानव जाति को बचाने के सामान है”
रमज़ान के इस खास मौके पर हमे इस महामारी से निपटने के लिए सेल्फ आइसोलेशन के साथ-साथ परस्पर सहयोग की भावना को बढ़ावा देना चाहिए.
हज़रत मुहम्मद ने फ़रमाया कि: “सच्चा ईमान वाला व्यक्ति वही है जिसके अन्तकरण में आपसी सहयोग, भाईचारे और दया की भावना हो”.
इस बात को बड़ी ही सुन्दरता के साथ इस हदीस में बयान किया गया है: “मनुष्य में समाज, सरकार, तथा लोगों के प्रति जितनी अधिक परस्पर सहयोग और भाईचारे की की भावना होगी की भावना होगी उनका ईमान उतना ही मज़बूत और वर्चस्व होगा.
इस रमज़ान के दौरान महामारी से लड़ने के लिए जिन विभिन्न बातों को उजागर किया जाना चाहिए, उनमें मानव सहयोग अधिक है न कि केवल आत्म-अलगाव। पैगंबर मुहम्मद ने सहयोग, दयालु और नेकदिल होने की विशेषताओं को सच्चे विश्वास के रूप में वर्णित किया| उनके अनुसार एक सच्चा आस्तिक वह व्यक्ति है जो Ma’laf (यानी सहयोगी और दयालु) है| पैगंबर ने कहा उस इंसान में कोई अछाई नहीं है, जो न तो दूसरों को पसंद करता है और न ही दूसरों द्वारा पसंद किया जाता है
इस हदीस की परंपरा ये स्पष्ट रूप से बताती है कि आप समाज, संस्थाओं और अन्य लोगों के प्रति अधिक सहयोगी हैं; आप अपने विश्वास (ईमान) में अधिक गुणी हैं। उपरोक्त हदीस की रौशनी में हम कुरान का पालन करेंगे जो ईमान वालों (विश्वासियों) को कानून और व्यवस्था के पालन के लिए आज्ञा देता है (सूरह अल-निसा: 59)।
देश में मौजूदा माहौल को देखते हुए यह रमज़ान राष्ट्रीय एकीकरण को मज़बूत करने का एक अवसर है, जो इस समय की सबसे बड़ीजरूरत है। यह एक ऐसा समय है जब सभी समुदाय के नेता राष्ट्रीय और सांप्रदायिक एकीकरण को मजबूत करने की दिशा में एक प्रभावी उपकरण के रूप में कार्य कर सकते हैं। अगर हम इन दिनों में भी यह सीखने में असफल रहे, तो हमें एक बड़ी महामारी का सामना करना पड़ेगा।
भारतीय समाज में हमारे सदियों पुराने सांप्रदायिक संबंधों की रक्षा के लिए महबूब-ई-इलाही हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने कहा था, “हमरा काम सुई – धागे का हैं, कैंची का नहीं, हम दिल जोड़ते हैं, तोड़ते नहीं” …।